आदिवासी विकास की राह
गंगा सहाय मीणा
एक तरफ मुख्यधारा के समाजों और सरकारों द्वारा मूल निवासियों को लगातार हाशिए पर धकेला जा रहा है, वहीं दूसरी ओर तीन सरकारी कदमों ने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। केरल के वायनाड में पूकोडे पहाडि़यों पर पहला आदिवासी हैरिटेज गांव एन उरु बनाया गया है। करोड़ों की लागत से केरल सरकार द्वारा इस गांव का निर्माण करीब 25 एकड़ में किया गया है। यह हैरिटेज गांव आदिवासी ज्ञान, संस्कृति, शिल्प और जीवन-शैली को सहेजने के उद्देश्य से बनाया गया है। साथ ही इससे स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजित होने की भी उम्मीद है। बाकी दो घटनाएं भारत से बाहर की हैं। दुनिया के एक छोर पर ऑस्ट्रेलिया के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज़ ने ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों से न्याय का वादा किया है और दुनिया के दूसरे छोर पर कनाडा में 1 जून से आदिवासी इतिहास माह की शुरूआत हुई है।
समाज-विज्ञानियों में इस बात को लेकर बहस रही है कि आदिवासियों की अस्तित्व रक्षा और सतत विकास के लिए कौनसी राह उचित होगी! एक तरफ मुख्यधारा के साथ उसकी शर्तों के आधार पर मेल-मिलाप का रास्ता है, दूसरी तरफ मुख्यधारा से अलग-थलग रहने का विकल्प है।
दुनियाभर की सरकारें आदिवासियों को व्यवस्था का हिस्सा बनाना चाहती हैं। केरल सरकार द्वारा बनाये गए आदिवासी हैरिटेज विलेज में स्थानीय आदिवासियों के पारंपरिक रहवास को संरक्षित करने के लिए उसी ढंग के घर बनाये गए हैं। गाूंव में आदिवासियों का पारंपरिक पहनावा और भोजन भी देखने को मिलेगा। सरकार इस हैरिटेज विलेज को एक पर्यटन स्थल के रूप में विकासित कर रही है। सरकार का दावा है कि इससे आदिवासी युवाओं को रोजगार मिलेगा और उनकी संस्कृति के बारे में बाहरी दुनिया जानेगी। आदिवासी चिंतक इस पहल की यह कहकर आलोचना कर रहे हैं कि विभिन्न सरकारें आदिवासियों को सजावटी वस्तु बनाकर बेचना चाहती हैं। आदिवासी इलाकों में सरकारी तंत्र के प्रवेश और हस्तक्षेप को भी आशंकित नजरों से देखा जाता रहा है।
चूंकि ज्यादातर सरकारों की मंशा ईमानदार नहीं होती और अपनी भाषा-संस्कृति और परिवेश को छोड़कर आदिवासी किसी और व्यवस्था का हिस्सा नहीं बनना चाहते, इसलिए दुनियाभर में ज्यादातर आदिवासी समूह आदिवासियों के स्वतंत्र अस्तित्व और विकास की राह चुनते हैं। आदिवासी अधिकारों को लेकर कार्यरत संयुक्त राष्ट्र की कार्य-समितियॉं भी आदिवासी अधिकारों की रक्षा की वकालत करती रही हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा पारित ‘मूल निवासियों के अधिकारों का घोषणा पत्र’ के अनुच्छेद 3 के अनुसार दुनियाभर के आदिवासियों को दूसरे तमाम मानवाधिकारों के साथ स्वायत्तता का भी अधिकार है। इसी के तहत 2008 में ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री केविन रुड ने वहॉं के मूल निवासियों से उनके साथ किये गए अन्यायपूर्ण बर्ताव के लिए अपनी ओर से, सरकार की ओर से और संसद की ओर से सार्वजनिक माफी मांगी। ऑस्ट्रेलिया में आदिवासी इलाकों को स्वायत्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाये गए हैं। इसी क्रम में लेबर पार्टी के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज ने ‘उलूरू वक्तव्य’ के प्रति अपनी वचनबद्धता दोहराई है जो 2017 में आदिवासी स्वायत्तता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से आदिवासी प्रतिनिधियों द्वारा तैयार किया गया था। आदिवासी इतिहास माह की शुरूआत के अवसर पर कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन टुडो के बयान को भी इसी क्रम में पढा जा सकता है जिसमें उन्होंने आदिवासी इतिहास की खोज और संरक्षण पर जोर दिया है।
मूल सवाल अब भी अनुत्तरित है। आदिवासी अगर मुख्यधारा और सरकारी तंत्र की शर्तों पर उसका हिस्सा बनते हैं तो उन्हें अपनी भाषा-संस्कृति और परिवेश छोड़ना होगा और बाहरी समाज के पदानुक्रम व उसमें तय स्थान को स्वीकार करना होगा। उसमें विकास का रास्ता, साधन और मूल्य बाहरी समाज के होंगे। दूसरी तरफ अगर वे आदिवासी ढंग की दुनिया चाहते हैं तो उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्वीकृत आत्मनिर्णय और स्वायत्तता के अधिकार को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना होगा। दोनों रास्तों में सबसे बड़ी चुनौती अपनी पहचान और अस्तित्व को बचाये रखना होगी।
आदिवासी विशेषज्ञ, एसाेसिएट प्रोफेसर, जेएनयू, नई दिल्ली